आधुनिक नारीवाद कितना समावेशी है ?



 वर्तमान नारीवाद राजनीतिक आंदोलन के एक सामाजिक सिद्धान्त के रूप में अस्तित्व में है और महिलाओं के

अनुभवों से जन्मा है जोकि वर्तमान वैचारिक परिधि में आम प्रचलन में है, परंतु सबसे महत्वपूर्ण इस बात पर

विमर्श करना जरूरी है कि आधुनिक नारीवादी डिस्कोर्स कितना समावेशी है या ये कहे कि नारीवाद समावेशी है भी

या नही ? और आज नारीवाद की समावेशीकृत प्रकृति को समझने की जरूरत ही क्यों उतपन्न हुई?

अंतर-अनुभागीय नारीवाद,(Intersectional ‌feminism) नारीवाद की ऐसी अवधारणा है जो नारीवाद की समावेशीकृत

प्रकृति को स्प्ष्ट करती है। सभी मनुष्यों की सिर्फ एक पहचान नही होती है, प्रत्येक व्यक्ति विभिन्न पहचानों में

जकड़ा हुआ होता है । ये पहचान जाति, नस्ल, धर्म, आदि किसी भी रूप में हो सकती है । जब नारीवादी विमर्श

की बात आती है तो पहचानों का ये दायरा और भी अधिक जटिल दिखाई पड़ता है। इसे इस तरह समझ सकते हैं

कि एक महिला के साथ केवल उसकी लैंगिक पहचान ही नहीं जुडी होती है , हो सकता है कि वह महिला होने के

साथ साथ एक दलित वर्ग से सम्बन्ध रखती हो जो उसकी जातीय पहचान की और इशारा करती है।intersectional

feminism इस बात को मान्यता देता है कि कैसे महिलाओं की परस्परव्यापी पहचान(overlapping identities)

उनके उपेक्षापूर्ण जीवन और शोषण के अनुभवों को आकार प्रदान करती हैं। दो स्तरों पर महिलाओं के नारीवादी

बहिष्करण को समझा जा सकता है- एक उचित प्रतिनिधित्व के स्तर पर और दूसरा उनकी खुद की अवसरों तक

पहुँच के स्तर पर।

भारत में महिलाओं की स्थिति हमेशा से ही दयनीय व उपेक्षित रही है। विभिन्न पहचानों के संदर्भ में समझे तो

महिलाओं को एक साथ कईं तरह की असमानता का सामना करना पड़ता है। एक दलित महिला को एक महिला

होने के रूप में और दलित होने के रूप में दोहरे शोषण का सामना करना पड़ता है।मैं बार बार दलित महिला पर

इसलिये जोर दे रही हूं क्योंकि आज अन्य किसी पहचान के बजाय जाति आधारित भेदभाव का अधिक प्रचलन

है।दलित महिलाओं की आवाज को आज भी वो स्वर प्राप्त नहीं है जोकि तथाकथित उच्च जाति की महिलाओं को

है।आज भी दलित महिलाओं को खुद को दुनिया के सामने प्रस्तुत करने का मंच नहीं दिया गया है। अक्सर यह

देखा जाता है कि कहीं भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करना हो तो उच्चजाति की सवर्ण महिलाओं को ही चुना जाता

है। जो अपनी बात तो सही तरह से रख सकती है लेकिन क्योंकि एक दलित आदिवासी महिला के शोषण का उसने

अनुभव नहीं किया है , इसलिए हो सकता है उसकी बात इतनी मजबूती से न रख पाए। सवर्ण नारीवाद अपने

नजरिये में सीमित है । वह जाति आधारित अन्याय के महिलाओं पर पड़ने वाले प्रभाव को पहचानने में असफल है।

एक दलित कार्यकर्ता और अखिल भारतीय दलित महिला मंच की महासचिव आशा कौताल भी नारीवाद के

विखण्डित होने की बात करती हैं। उन्होंने कहा कि- “ जबतक सवर्ण महिला उन शक्ति और संरचनाओं को खत्म

नहीं कर देती जिनसे केवल उन्हें लाभ मिल रहा है तब तक वो हमारे संघर्ष को नहीं समझ सकती”।जब कभी भी

नारीवाद सम्बन्धी पहलू या तथ्य पेश किये जाते है तो उनके केंद्र में महिलाओं का केवल एक समूह ही होता है।

जैसे यदि ये कहा जा रहा है कि किसी विशेष क्षेत्र में महिलाओं की साक्षरता दर 60% है तो यह 60% का आंकड़ा

केवल उच्चजाति की महिलाओं की साक्षरता को दिखाता है अगर इस 60% में केवल दलित महिलाओं की दर को

देखा जाए तो ये तुलनात्मक रूप से काफी नीचे होगी।

हाल ही के एक अध्ययन से यह पता चला है कि महाराष्ट्र के एक गांव में महिला मजदूरों के मासिकधर्म को कार्य

में रुकावट माना जाता है, इस समस्या के समाधान के लिए वहाँ की अधिकतर महिलाओं का सर्जरी द्वारा


गर्भाशय निकलवा दिया जाता है । जिसका उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। इन महिलाओं में अधिकतर दलित

महिलाएं है जिन्हें शारीरिक और मानसिक दोनों असन्तुलन का शिकार होना पड़ता है लेकिन उनके लिए बोलने

वाला कोई नहीं है ।

चूंकि उच्च जाति की महिलाएं दलित महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है, इसलिए अगर ये मान लिया

जाए की दलित महिलाये या अन्य कोई भी दरकिनार महिला अपना प्रतिनिधित्व खुद करें ,तो यह भी सम्भव नहीं

दिखाई पड़ता । उनकी परिस्थिति उन्हें अपने लिए आवाज उठाने से रोकती है।#MeToo जैसे डिजिटल आंदोलन इस

बात की गवाही देते हैं कि आधुनिक समय में सभी वर्ग समूह की इन तक पहुँच नहीं है। ये आंदोलन पुनः

उच्चजाति की महिलाओं या केवल उन विशेषाधिकार प्राप्त महिलाओं की पकड़ में होंगे जो सोशल मीडिया जैसे

प्लेटफार्म तक अपनी पहुँच सुनिश्चित करती है। अब वह दलित महिला जो पहले ही गरीब है और शिक्षा के अभाव

में इन आधुनिक तकनीकों को समझ नहीं पायी है उसके लिए ये आंदोलन निरर्थक ही होंगे।जानें अनजाने ही सही

लेकिन हम नारीवादी धारा से महिलाओं के एक वर्ग को अलग कर रहे हैं। ये हो सकता है कि वंचित महिलाएं

धरातलीय स्तर पर खुद को प्रस्तुत करने की कोशिश करें लेकिन ऐसे में उनके पास केवल सीमित अवसर ही मौजूद

होंगे।

Intersectional feminism को केंद्र में रखकर हमें यह पता चलता है कि नारीवादी डिस्कोर्स को अभी एक लंबा

रास्ता तय करना है।नारीवाद के भीतर आज ऐक्यभाव का अभाव है और जब तक इसे समावेशीकृत नहीं बनाया

जाएगा तब तक मुख्यधारा का नारीवाद खोखले प्रयासों से अधिक कुछ नहीं है। इंटेरसेक्शनल नजरिये का अभाव

नारीवाद की जड़ो को मजबूती प्राप्त करने से रोक भले ही रहा हो लेकिन यह मुश्किल नहीं है। एक तो शिक्षा

किसी भी क्षेत्र में बदलाव का महत्वपूर्ण हथियार है, लोगों को अधिक से अधिक जागरूक करना , उनमें इस समझ

को विकसित करना कि सभी की परिस्थितियां अलग अलग होती हैं और इसलिए सबके अनुभव भी समान नहीं

होते हैं । जिन्हें मुख्यधारा में अपनी आवाज मुखर करने से वंचित रखा गया उन्हें बोलने का मौका दिया जाए और

जिन्हें पहले ही ये "विशेषाधिकार" मिला हुआ है उन्हें अपनी सुनने की कला विकसित करनी चाहिए।इस बात को

ध्यान में रखकर प्रयास किये जाए तो नारीवाद को अधिक समावेशी बनाया जा सकता है। जरूरी नहीं है कि

शुरुआत दीर्घकालीन प्रभावों को लक्षित करके की जाए , बस छोटी छोटी सम्भावनाओं को तलाशने की जरूरत है।

-ज्योति

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